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29 जून 2009

पानी की किल्लत से अन्न उगाना बड़ी चुनौती

पानी इंसानों के पीने के लिए दिया जाए या फिर अन्न उपजाने को खेतों की सिंचाई के लिए। पानी की किल्लत अनाज उत्पादन पर भारी पड़ रही है। आने वाले पांच से दस साल के दौरान बढ़ती आबादी के लिए पर्याप्त अनाज उगाना देश के लिए बड़ी चुनौती होगी।अनुमान है कि वर्ष 2020 में भारत को अपनी आवश्यकता के लिए करीब दस करोड़ टन गेहूं की आवश्यकता होगी। जबकि पिछले सालों में गेहूं का उत्पादन प्रति वर्ष मात्र 0.8 फीसदी की दर से बढ़ा जबकि आबादी में बढ़ोतरी 2.2 फीसदी की दर से हो रही है। चावल का उत्पादन वर्ष 2000-01 में देश में 933 लाख टन का हुआ था जबकि चालू वर्ष में 993 लाख टन होने का अनुमान है। मक्का का उत्पादन पिछले साल के 189 लाख टन से घटकर 184 लाख टन होने का अनुमान है। खपत में हो रही बढ़ोतरी को देखते हुए वर्ष 2020 तक भारत को करीब 300 लाख टन मक्का की आवश्ययकता होगी। विशाल आबादी का पेट भरने के लिए ज्यादा खाद्यान्न की जरूरत पड़ेगी। देश में अनाज की कमी आयात से भी दूर होना मुश्किल होगा।अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम बढ़ने से अनाज से बायोफ्यूल बनाने का उद्योग बढ़ रहा है। ऐसे में आगामी पांच से दस सालों में देश को खाद्यान्न की भारी कमी का सामना करना पड़ सकता है। अत: इनके उत्पादन में बढ़ोतरी कैसे हो इसके लिए कृषि वैज्ञानिकों को काफी जद्दोजहद करनी पड़ सकती है। आबादी में हो रही बढ़ोतरी के हिसाब से खाद्यान्न उत्पादन कैसे बढ़े, इसके लिए ठोस रणनीति बनाने की सख्त आवश्यकता है।गेहूं अनुसंधान निदेशालय, करनाल के परियोजना निदेशक डाक्टर जग शरण ने बिजनेस भास्कर को बताया कि नहरी पानी का उपयोग सिंचाई के बजाय दूसरे कार्यो जैसे इंसानों के पीने और उद्योगों के लिए उपयोग लगातार बढ़ रहा है। पहले नहरें खेतों की सिंचाई के लिए बनाई जाती थी लेकिन अब राज्यों में दूसरे कार्यो के लिए नहरों का निर्माण हो रहा है। नहरी पानी को लेकर हरियाणा-पंजाब-राजस्थान, कर्नाटक-आंध्र प्रदेश तथा अन्य कई राज्यों के बीच मुकदमे अदालतों में कई सालों से चल रहे हैं। पिछले दो-तीन साल से सिंचाई के लिए कोई नई जल संचय परियोजना नहीं बनी है। हालत यह हो गई है कि नहरों में आखिरी टेल तक पानी ही नहीं पहुंच रहा है। भू जल स्तर का हाल यह है कि जिन क्षेत्रों में आज से चार-पांच साल पहले 80-90 फीट पर टयूबवैल लगे हुए थे, वे सब बंद हो चुके हैं। कई राज्यों में भूमि का जलस्तर गिरकर 250 से 300 फीट तक नीचे चला गया है। किसानों के लिए सबसे बड़ा जोखिम जो बनता जा रहा है, वह है बारिश में लंबा समयांतराल और मानसून का जल्दी समाप्त हो जाना। मानूसनी वर्षा कम होने का अर्थ है कि जलाशयों में पानी की कमी रहती है। मानसून धोखा देता है तो खेतों में खड़ी फसल और किए गए निवेश को बचाना मुश्किल होता है।पिछले कुछ समय से मानसून से जुड़ी सबसे बड़ी चिंता तेजी से उभरते अल नीनो (प्रशांत महासागर में पानी के गर्म होने को दिया गया स्थानीय नाम) को लेकर है। अक्सर माना जाता है कि इसका मानसून पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। अगर ऐसा ही रहा तो आगामी पांच-दस साल में खेतों के लिए क्या पीने के पानी के भी लाले पड़ सकते हैं। खेती की मानसून पर निर्भरता बढ़ती जा रही है।यूएस ग्रेन काउंसिल के भारत में प्रतिनिधि अमित सचदेव के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम बढ़ते ही खाद्यान्न का उपयोर्ग ईधन के रूप में बढ़ जाता है। दो साल पहले जब भारत कोगेहूं का आयात करना पड़ा तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में गेहूं के दाम 200 डॉलर से बढ़कर 450 डॉलर प्रति टन हो गए थे। गेहूं का उत्पादन पिछले नौ साल में मात्र डेढ़ फीसदी बढ़ा है। ऐसे में समय आ गया है कि सरकार खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने पर गंभीरता से विचार करें तथा कोई ठोस रणनीति बनाए। (Business Bhaskar....R S Rana)

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