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22 फ़रवरी 2011

फिर उम्मीद पर टिकी कृषि

पिछले छह-सात साल के बजट पर निगाह डालें तो लगता है कि सरकार खाद्य और कृषि पर विशेष ध्यान दे रही है। तमाम वित्त मंत्री कृषि क्षेत्र को लेकर उदासीनता पर यह कहकर पर्दा डालते रहे है कि उनका बजट किसानों की आजादी लेकर आया है या फिर यह बजट कृषि क्षेत्र की जीवनरेखा है। हालांकि सच्चाई यह है कि हालिया वर्षो के तमाम बजट में किसानों की दशा में बदलाव लाने वाले निवेश से कन्नी काटकर कृषि की घोर उपेक्षा की गई है। इस साल का बजट भी पिछले बजटों का अपवाद नहीं होगा। वित्त मंत्री ने बजट पूर्व वार्ताओं में उद्योगपतियों और उद्योग जगत द्वारा प्रायोजित कृषि संगठनों से विमर्श किया है। इससे लगता है कि बजट में उन्हीं के हित सुरक्षित रखे जाएंगे। मैं आगामी बजट में कृषि क्षेत्र और किसानों के कल्याण को लेकर अधिक आशान्वित नहीं हूं। उन्हे केवल उम्मीद पर ही जिंदा रहना होगा।
अतीत की तरह यह बजट भी किसानों के नाम पर कृषि व्यापार उद्योग को बढ़ावा देगा। मुझे पूरा यकीन है कि पिछले काफी समय से खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों के कारण इस साल उद्योग जगत सरकारी खजाने से बड़ी राशि निकालने में कामयाब रहेगा। यह नहीं भूलना चाहिए कि जब भी कोई संकट खड़ा होता है या देश किसी आपदा से घिर जाता है तो उद्योग जगत इसे अवसर के रूप में भुनाता है। यदि वास्तव में वित्त मंत्री किसानों के हालात सुधारना चाहते है तो उन्हे कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने चाहिए। सबसे पहले तो सरकार को कृषि क्षेत्र में चार प्रतिशत संवृद्धि दर की रट छोड़नी चाहिए। कृषि संवृद्धि दर दो फीसदी हो या चार फीसदी, इससे मुसीबत में फंसे करोड़ों किसानों को कोई लाभ नहीं होगा। इसके बजाय वित्त मंत्री को किसानों की आय पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन 2003-04 के अनुसार भारत में कृषक परिवार की औसत आय महज 2115 रुपये है। 2011 में हम इतना ही सोच सकते है कि यह आय बढ़कर 2400 हो जाए। इसका मतलब यह है कि भारत में किसान गरीबी रेखा के नीचे रह रहे है। मूलभूत सवाल यह है कि कृषि आय में बढ़ोतरी क्यों नहीं होती। इस संबंध में मुझे अधिक उम्मीद नजर नहीं आती। मैं बस यह आशा कर रहा हूं कि इस साल कृषि क्षेत्र के लिए ऋण की वर्तमान राशि 3.7 लाख करोड़ को बढ़ाकर चार लाख करोड़ या इससे कुछ अधिक किया जा सकता है। पिछले साल सरकार ने सूखे क्षेत्रों में साठ हजार गांवों में दाल के उत्पादन के लिए राशि आवंटित की थी। इस अवसर का उद्योग जगत, जिसमें उपकरण आपूर्तिकर्ता भी शामिल है, ने पूरा फायदा उठाया। उन्होंने एक गुट बनाकर 10 गांवों के लिए जारी धनराशि हड़प ली। असलियत में, दलहन उत्पादन में वृद्धि के लिए सुनिश्चित बाजार बेहद जरूरी है। यद्यपि सरकार दलहन के लिए सरकारी खरीद की दर निर्धारित करती है, लेकिन दलहन की सरकारी खरीद की कोई व्यवस्था ही नहीं है। अगर गेहूं और चावल की तर्ज पर दलहन की भी सरकारी खरीद होने लगे तो धीरे-धीरे इसका उत्पादन बढ़ जाएगा और विदेशों पर निर्भरता खत्म हो जाएगी।
सब्जियों की कीमतों के आसमान छूने के कारण वित्त मंत्री इन्हे नीचे लाने पर पूरा ध्यान देंगे। अनेक वर्षो से हमें बताया जा रहा है कि 40 फीसदी फल व सब्जियां फसल के बाद होने वाले नुकसान की भेंट चढ़ जाती हैं। मैं इस नुकसान के आकलन के आधार को लेकर सुनिश्चित नहीं हूं। फल और सब्जी के क्षेत्र में निगरानी और पूर्वानुमान के आधार पर नीति बनाना बहुत जरूरी है। इसके अलावा फसल और मौसम बीमा के माध्यम से भी किसानों के हित सुरक्षित किए जा सकते है। दुर्भाग्य से, फसल बीमा की प्रगति प्रयोग के स्तर तक ही हुई है।
प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा बिल के आलोक में खाद्य सुरक्षा भी वित्त मंत्री का ध्यान आकर्षित करेगी। खाद्य सुरक्षा के नाम पर और यह जानते हुए कि खाद्य पदार्थो की पहुंच निम्न आय वर्ग के लोगों के हाथ से निकलती जा रही है, यह उम्मीद की जा सकती है वित्त मंत्री इसके लिए अधिक राशि का प्रावधान करेगे। दूसरे शब्दों में भ्रष्ट सार्वजनिक वितरण प्रणाली में और धनराशि झोंकी जाएगी। आवश्यकता इस बात की है कि देश भर में ग्रामीण खाद्यान्न बैंकों की स्थापना के लिए तत्काल वित्तीय व्यवस्था की जाए। प्रत्येक राज्य में इन बैंकों को क्षेत्रीय अन्न बैंकों के साथ जोड़ा जाए।
ग्रामीण विकास मंत्रालय पहले ही प्रत्येक पंचायत में पंचायत घरों के निर्माण के लिए संसाधन मुहैया करा रहा है। पंचायत घरों के निर्माण से भी अधिक जरूरी है प्रत्येक पंचायत में अन्न बैंकों का निर्माण। इससे न केवल अन्न की बर्बादी कम होगी, बल्कि क्षेत्रीय स्तर पर खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित होगी। देश में करीब छह लाख गांव है, जिनमें से चार लाख गांवों में खाद्यान्न का उत्पादन होता है। इससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बोझ कम होगा और इसे अधिक प्रभावी बनाने में सहायता मिलेगी।
आजकल दूसरी हरित क्रांति के माध्यम से खाद्यान्न जरूरतों को पूरा करने की बहुत चर्चा है। पिछले बजट में सरकार ने हरित क्रांति के पूर्वोत्तर राज्यों तक विस्तार के लिए चार सौ करोड़ रुपये का प्रावधान किया था। सरकार इस बात पर कतई ध्यान नहीं दे रही है कि सघन कृषि क्षेत्रों जैसे पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित क्रांति ने खेती को कितना नुकसान पहुंचाया है। पहले ही हरित क्रांति से मिट्टी और भूमिगत जलस्तर विषैले हो चुके है। इसके कारण भूमिगत जलस्तर काफी गिर गया है और रासायनिक कीटनाशकों से खाद्यान्न विषैले हो गए है।
आज परंपरागत कृषि के टिकाऊ मॉडल को अपनाने की आवश्यकता है। इसी से किसानों की दशा सुधरेगी और वे आत्महत्या करने को मजबूर नहीं होंगे। इससे पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों को भी नुकसान नहीं होगा तथा ग्लोबल वार्मिग में भी कमी आएगी। इस प्रकार का मॉडल पहले ही आंध्र प्रदेश में जारी है। यहां 23 में से 21 जिलों में एक तरह से कृषि का कीटनाशक विहीन प्रबंधन चल रहा है। 28 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में किसान रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं कर रहे है। साथ ही चरणबद्ध तरीके से रासायनिक खाद को भी तिलांजलि दे रहे है।?इसके बावजूद वहां फसल की पैदावार में कोई गिरावट नहीं हुई है, मिट्टी का स्वास्थ्य सुधरा है और बीमारी पर होने वाले खर्च में करीब 40 फीसदी की कमी आई है। यही नहीं, इस क्षेत्र में कृषि आमदनी बढ़ी है और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हुई है। यह आंध्र प्रदेश सरकार का कार्यक्रम है। प्रणब मुखर्जी को इस कार्यक्रम के देश के अन्य भागों में विस्तार के लिए धनराशि का प्रावधान करना चाहिए। इसी में खाद्य सुरक्षा और लाभदायक कृषि का भविष्य निहित है।
[देविंदर शर्मा: लेखक कृषि नीतियों के विश्लेषक है] (Dainik Jagarn)

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