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22 दिसंबर 2012

खाद्य सुरक्षा के लिए सहभागिता जरूरी

डॉ. विशेश्वर मिश्र लेखक आजकल देश में खाद्य सुरक्षा की स्थिति को सुधारने के लिए प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक चर्चा का विषय बना हुआ है. और विभिन्न राजनीतिक दलों, राज्य सरकारों और यहां तक की सत्तारूढ़ कांग्रेस एवं उसकी सरकार के बीच इस मुद्दे पर मतभेद बने हुए हैं. हाल ही में इंटरनेशनल फूड पालिसी रिसर्च इंस्टिट्यूट द्वारा वर्ष 2012 के लिए प्रकाशित भुखमरी सूचकांक के अनुसार दुनिया में भूख से पीड़ित 79 देशों की सूची में भारत को 65वें स्थान पर रखा गया है. यह एक दुखद आश्चर्य की बात है कि भारत जैसा देश, जहां संसाधनों और खाद्यानों की कोई कमी नहीं है, वह खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से पड़ोसी पाकिस्तान, चीन, श्रीलंका आदि से भी बदतर स्थिति में है. संपूर्ण एशिया में मात्र बांग्लादेश से भारत की स्थिति बेहतर है. यहां यह चर्चा करने की आवश्यकता है कि पोषण संबंधी योजनाओं एवं कार्यक्रमों पर भारत सरकार का कुल खर्च 1,55,848 करोड़ रुपए (2012-13) है. इसमें 11,937 करोड़ रुपए मध्यान्ह भोजन, 15,850 करोड़ रुपए समेकित बाल विकास कार्यक्रम, 60573 करोड़ रुपए सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से गरीबों को चावल, गेहूं, चीनी एवं मिट्टी के तेल पर दी जाने वाली छूट के लिए, 34,488 करोड़ रुपए स्वास्थ्य सेवाओं पर और 33000 करोड़ रुपए मनरेगा पर खर्च की जाने वाली राशि शामिल है. लेकिन इतने भारीभरकम खर्च के बावजूद भी अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं. योजना आयोग द्वारा वर्ष 2005 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा गरीबों के लिए दी जा रही छूट का वास्तविक लाभ मात्र 32 प्रतिशत लाभार्थियों तक ही पहुंच पा रहा है, अर्थात बाकी के 68 प्रतिशत (41189.64 करोड़ रुपए) व्यर्थ ही चले जाते हैं. परिणामस्वरूप पांच वर्ष से कम आयु वर्ग के 43.5 प्रतिशत बच्चे और गर्भधारण करने की आयु वाली 36 प्रतिशत महिलाओं का वजन आवश्यकता से कम है. यह दुखद है कि इतने अधिक संसाधनों के बावजूद भारत भूख की समस्या से मुक्त नहीं हो पा रहा है. एक ओर गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं है, खुले में अनाज सड़ जाता है और दूसरी ओर करोड़ों पेट खाली रह जाते हैं. खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर सबसे अधिक जोर है, पर वांछित परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं. इस स्थिति से निबटने के लिए एक विकल्प यह उभर कर आ रहा है कि गरीबों को कम कीमत पर खाद्य उपलब्ध कराने के बजाए छूट की राशि सीधे उनके बैंक एकाउंट में स्थानांतरित कर दी जाए. प्रायोगिक तौर पर दिल्ली सरकार और सेवा दिल्ली के सौजन्य से पश्चिमी दिल्ली के 100 गरीब परिवारों को उनकी सहमति से यह सुविधा उनके एकाउंट में एक हजार रुपए प्रति माह हस्तांतरित करके प्रदान की गई. इसके कई अच्छे परिणाम सामने आए. इन परिवारों को स्वेच्छा से इस धनराशि को शिक्षा, स्वास्थ्य खाद्यान्न पर खर्चने या अन्य कोई जरूरत का सामान खरीदने की आजादी मिली. परिणामत: उचित दर की दुकानें अधिक समय तक खुली रहने लगीं ताकि और अधिक लोग नकद राशि का विकल्प न दे दें और उनकी दुकान बंद न हो जाए. इससे खाद्यानों के भंडारण, रख-रखाव, परिवहन एवं वितरण से जुड़ी हुई समस्याओं से भी निजात मिल जाती है. सबसे बड़ी बात यह है कि इसका लाभ केवल 32 प्रतिशत की बजाय शत-प्रतिशत लोगों तक पहुंचता है, इसलिए इस सफल प्रयोग को बड़े पैमाने पर अपनाया जाना स्वागतयोग्य है. सेवा भारत की राष्ट्रीय समन्वयक सुश्री रेनाना झाबवाला का मानना है कि यह चुनाव लाभान्वितों पर छोड़ दिया जाना चाहिए कि वे खाद्य लेना चाहेंगे या नकद राशि. साथ ही यह राशि परिवार की महिला के बैंक एकाउंट में ही हस्तांतरित की जाए, ताकि इस राशि का दुरुपयोग शराबखोरी के लिए न हो. ज्ञातव्य है कि खाद्य सुरक्षा हेतु चावल, गेहूं और दालों की उपलब्धता बढ़ाने के लिए 29 फरवरी, 2008 से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन की शुरुआत की गई थी और इसके द्वारा उपरोक्त फसलों के उत्पादन में वृद्धि हेतु विशेष प्रयास जारी हैं. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के अंतर्गत केंद्र द्वारा वर्ष 2012 में 1800 करोड़ रुपए की धनराशि आवंटित की गई है, ताकि 12वीं योजना के कार्यकाल में खाद्यान्नों का उत्पादन 25 मिलियन टन बढ़ाया जा सके. इस कार्यक्रम के अंतर्गत सबसे अधिक 276.9 करोड़ रुपए उत्तर प्रदेश को प्राप्त हुए. मध्यप्रदेश को 226.87 करोड़ रुपए, महाराष्ट्र को 196 करोड़ रुपए, आंध्रप्रदेश को 142 करोड़ रुपए, राजस्थान को 135.95 करोड़ रुपए, कर्नाटक को 104.83 करोड़ रुपए और बिहार को 97.87 करोड़ रुपए मिले हैं. इस कार्यक्रम के अंतर्गत किसानों को सुधरे हुए प्रमाणित बीज, अच्छी तकनीक एवं अन्य लाभ उपलब्ध कराया जाता है. इन सभी कदमों के फलस्वरूप 2010-11 में देश में 241 मिलियन टन का रिकार्ड खाद्यान्न उत्पादन हुआ. वर्ष 2009 में कृषि मंत्रालय द्वारा 2011-12 के लिए लगाए गए अनुमान के अनुसार चावल और गेहूं के मामले क्रमश: 5.42 एवं 6.25 मिलियन टन आवश्यकता से अधिक उत्पादन होगा, परंतु मोटे अनाज, दालों और तिलहन के उत्पादन में कमी आंकी गई थी. इसी प्रकार दूध, अंडा और मांस का उत्पादन भी जरूरत से कम है. भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद द्वारा सुझाए गए प्रति व्यक्ति उपभोग के मानक के आधार पर दूध में 34 ग्राम प्रतिदिन, अंडा 150 प्रति वर्ष और मांस में 7.71 किलोग्राम प्रति वर्ष प्रतिव्यक्ति की कमी है. देश की बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए आवश्यकता के अनुसार खाद्यान्न उपलब्ध रहे, इसके लिए केंद्र सरकार द्वारा 2007 में गठित एक समिति ने उत्पादन को प्रभावित करने वाले कारकों को चिन्हित करते हुए निजी एवं सरकारी क्षेत्रों द्वारा कृषि एवं ग्रामीण आधारभूत संरचनाओं जैसे सिंचाई, तकनीकी सुधार, कृषि का विविधीकरण तथा उर्वरकों में निवेश को शामिल किया गया. देश की खाद्य सुरक्षा के लिए द्वितीय हरित क्रांति की भी चर्चा चलती रहती है, जिसमें विशेषकर पूर्वी एवं पूर्वोत्तर राज्यों की कृषि संबंधी अगाध संभावनाओं के उपयोग की बात होती है. जमीन, जल और जलवायु की दृष्टि से उत्तम होने के बावजूद देश के ये राज्य कृषि क्षेत्र में पिछड़े हुए हैं क्योंकि यहां आधारभूत संरचनाओं की कमी के साथ-साथ तकनीकी प्रचार-प्रसार पर इतना जोर नहीं दिया गया जितना कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में; अन्यथा भारत खाद्यान्न के मामले में विश्वका एक अग्रणी राष्ट्र हो सकता था. आज हमारे नीति निर्धारकों को इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है ताकि उपलब्ध संसाधनों का खाद्य सुरक्षा के लिए सही उपयोग हो सके। इसके लिए बनाई गई किसी भी रणनीति में लोगों की सक्रिय सहभागिता से ही अपेक्षित परिणाम मिल पाएंगे, इस बात का विशेष ध्यान होना चाहिए. लेकिन असल मुद्दा तो यह है कि आम आदमी विशेषकर गरीब परिवारों की इन तक आसान पहुंच कैसे बढ़े. वर्तमान समय में जब चारों ओर महंगाई से भय का माहौल बना हुआ है, आम आदमी की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ठोस नीतिगत फैसलों की जरूरत है.

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