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31 मई 2013

सफेद झूठ पर टिका है जीएम फसलों का विरोध

जीन संशोधित (जीएम) फसलों का सबसे ज्यादा विरोध करने वाले और एक दौर में इनके खेत जला देने वाले ग्रीन ऐक्टिविस्ट मार्क लाइनास ने अपनी इस सोच से तौबा कर ली है। यही नहीं, 'एक महत्वपूर्ण तकनीकी विकल्प को राक्षस की तरह पेश करने के लिए' उन्होंने सार्वजनिक क्षमायाचना भी की है। ग्रीनपीस और वंदना शिवा जैसे ऐक्टिविस्टों को भी अब ऐसा ही करना चाहिए। लाइनास कहते हैं कि जब उन्होंने मोनसांटो के जीएम सोया के बारे में सुना तो सोचा कि एक घटिया अमेरिकी कंपनी जीनों के घालमेल से बना एक और खतरनाक खाद्य बाजार में ला रही है। उन्होंने दुनिया भर में जीएम अनाजों और सब्जियों के प्रति भय पैदा करने की मुहिम चलाई थी और कई देशों में इन पर रोक लगवा दी थी। लेकिन इन फसलों के पीछे मौजूद विज्ञान को आत्मसात करने के बाद, और इसी बीच अपनी किताब 'सिक्स डिग्रीज' पर रॉयल सोसायटी का साइंस बुक प्राइज हासिल कर लेने के बाद उन्हें लगा कि जीएम खाद्य पदार्थों के खिलाफ इतने लंबे समय से बने हुए उनके विश्वास महज एक मिथक हैं। टमिर्नेटर टेक्नॉलजी 'मैंने मान लिया था कि जीएम से केमिकल्स का इस्तेमाल बढ़ेगा। पता चला कि कीट-प्रतिरोधी कपास और मक्का को कम कीटनाशकों की जरूरत पड़ती है। मैं मानता था कि जीएम का फायदा सिर्फ बड़ी कंपनियों को मिलेगा। पता चला, लागत कम पड़ने से किसानों को अरबों डॉलर का फायदा हो रहा है। मेरी धारणा थी कि टमिर्नेटर टेक्नॉलजी (जिसका आरोप मोनसांटो पर लगता था) किसानों के बीज बचाने के अधिकार पर डाका डाल रही है। पता चला कि संकर नस्लें यह काम पहले ही कर चुकी हैं, और टमिर्नेटर जैसा कुछ कभी था ही नहीं। मेरा ख्याल था कि जीएम को कोई नहीं चाहता। हकीकत यह निकली कि बीटी कॉटन को गैरकानूनी ढंग से भारत मंगाया जा रहा था और ब्राजील में राउंड-अप रेडी सोयाबीन उगाया जा रहा था, क्योंकि इन देशों के किसान इन्हें उगाने को बेताब थे। मैं जीएम को खतरनाक मानता था। लेकिन मुझे पता चला कि म्यूटाजेनेसिस जैसे तरीकों से तैयार की गई पारंपरिक फसलों की तुलना में ये कहीं ज्यादा सुरक्षित हैं। जीएम टेक्नीक में सिर्फ एक-दो जीनों का हेरफेर होता है, लेकिन पारंपरिक संकरण में तो ट्रायल ऐंड एरर का तरीका अपनाकर समूचे जेनोम का ही बंटाधार कर दिया जाता है।' ऑर्गैनिक की हकीकत लाइनस का कहना है कि 2050 में जब दुनिया की जनसंख्या साढ़े नौ अरब हो जाएगी तब उसका पेट भरने के लिए अभी के दोगुने खाद्य उत्पादन की जरूरत पड़ेगी। यह काम कम उपज वाली ऑर्गैनिक फसलों (हरित क्रांति से पहले वाली) के जरिये करना हो तो बड़ी मात्रा में जंगलात और घास वाली जमीनों को साफ करके उन्हें खेती के काम में लाना पड़ेगा। ऐसा हुआ तो पर्यावरण, जैव विविधता और जल आपूर्ति का दिवाला पिट जाएगा। ऐसा नहीं होना चाहिए। दुनिया को बेहतर उपज की जरूरत है और जीएम इसे हासिल करने का अच्छा तरीका है। ऑर्गैनिक फार्मिंग मूलत: हरित क्रांति से पहले वाली तकनीक ही है, जिसने समूचे मानव इतिहास को माल्थस के सिद्धांत वाली भुखमरी के कगार पर बिठाए रखा था। सौभाग्यवश, नोबेल पुरस्कार विजेता नॉर्मन बोरलॉग के नेतृत्व में आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह दिखाया कि गेहूं के जींस में फेरबदल करके तैयार की गई हाई-यील्डिंग किस्मों में अधिक खाद का इस्तेमाल करके दोगुनी से भी ज्यादा उपज हासिल की जा सकती है। भारत की नई पीढ़ी को इसका जरा भी अंदाजा नहीं है कि 1965-66 का सूखा कितना भयंकर और अपमानजनक था। हालत यह हो गई थी कि भुखमरी से बचने के लिए हमें पूरी तरह अमेरिकी खाद्य सहायता पर निर्भर हो जाना पड़ा था। सौभाग्यवश, हरित क्रांति की मेहरबानी से ज्यादा उपज वाली खेती ने ऑर्गैनिक खेती की जगह ले ली और इसके बाद न सिर्फ भारत को फिर कभी खाद्यान्न संकट का सामना नहीं करना पड़ा, बल्कि हमारी गिनती आज दुनिया के खाद्य निर्यातकों में हो रही है। बोरलॉग ने कहा कि ऑर्गैनिक फार्निंग अमीर लोगों की श्रेष्ठ और महंगे खाने की मांग पूरी कर सकती है, लेकिन व्यापक जनता की जरूरतें पूरी करना इसके बूते की बात नहीं है। ग्रीनपीस और अन्य कार्यकर्ता यह झूठा दावा करके कि ज्यादा उपज वाली किस्मों जितना अनाज ऑर्गैनिक फार्निंग से भी उपजाया जा सकता है, संसार को दोबारा खाद्यान्न संकट की ओर धकेलने पर तुले हैं। लाइनास का कहना है कि जीएम खाद्य पदार्थों के बारे में झूठी अफवाहें फैलाकर और इनके और ज्यादा परीक्षण की मांग करके ऐक्टिविस्टों ने इनके लिए इजाजत की अवधि 3.7 साल से बढ़वाकर 5 साल करवा दी और किसी जीएम फसल को बाजार में लाने की न्यूनतम लागत को बढ़ाकर 13 करोड़ 90 लाख डॉलर कर दिया। इस खेल में मोनसांटो जैसे सबसे बड़े खिलाड़ी ही टिके रह सकते हैं। यूं कहें कि अपने आंदोलनों के जरिये इन महानुभावों ने ठीक उन्हीं कंपनियों को एकाधिकार की स्थिति में ला दिया है, जिनके विरोध का वे दावा किया करते हैं। फसल जलाने का तर्क पिछले साल ऐक्टिविस्टों ने ऑस्ट्रेलिया में जीएम गेहूं की खड़ी फसल जला डाली। लेकिन इसी फसल के एक अन्य परीक्षण में उपज 30 फीसदी बढ़ी हुई पाई गई। अनाज की एक किस्म को उसके परीक्षण से पहले ही नष्ट कर देना मध्यकाल में चर्च द्वारा किताबें जलाने और ब्रूनो-गैलिलियो को सजा सुनाने जैसा है। लाइनास का कहना है कि जीएम की बहस अब खत्म हो चुकी है। डेढ़ दशक और 30 खरब जीएम भोजनों के बाद भी इससे किसी को कोई नुकसान होने का मामला सामना नहीं आया है। जीएम खाना खाकर बीमार पड़ने की आशंका किसी के उल्कापिंड की चपेट में आकर मारे जाने से भी कम है। वे ऐक्टिविस्टों को बताते हैं कि 'अपना अलग विचार रखने का आपको पूरा हक है, लेकिन विज्ञान इसके पक्ष में नहीं है।' दुनिया को लाइनास जैसे और भी ग्रीन विदोहियों की जरूरत है।

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