कुल पेज दृश्य

09 अप्रैल 2014

मजबूत होने पर भी भाव तय नहीं कर पाते भारतीय जिंस एक्सचेंज

देश के कमोडिटी एक्सचेंज नवीन उत्पादों एवं अनुसंधान के बल पर दुनिया में ताकतवर एक्सचेंजों की जमात में शामिल हो गए हैं। फिर भी वैश्विक स्तर पर किसी भी कमोडिटीज के भाव तय करने में इनकी अहम भूमिका नहीं होती। भारतीय कमोडिटी एक्सचेंजों की इस स्थिति के लिए एमसीएक्स के प्रमुख अर्थशास्त्री नीलांजन घोष व्यक्तिगत तौर पर पांच प्रमुख कारण गिनाते हैं। एफआईए के सालाना कारोबारी आंकड़ों के अनुसार भारत सोना, चांदी, तांबे आदि अनेक वैश्विक जिंसो के अनुबंधों के आधार पर दुनिया में सबसे आगे रहा है। भारतीय एक्सचेंजों में लगातार नवीनता आ रही है। छोटे लॉट साइज के अनुबंध शुरू किए गए हैं, जिससे छोटे एवं खुदरा कारोबारियों को जिंस एक्सचेंजों में हिस्सा लेने का मौका मिला है। बाजार समावेशन की दिशा में वैसे तो यह एक अहम पहल है। छोटे आकार के लॉट साइज वाले अनुबंधों के होने से अनुबंधों की संख्या के हिसाब से कारोबार में बढ़ोतरी जरूर होती है, लेकिन वैश्विक एक्सचेंजों के सौदों की तुलना में ये काफी कम होते हैं। भारत में वायदा बाजार वैसे तो भौतिक बाजार से अमेरिका और ब्रिटेन के बाजारों से भी काफी कम है। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय बाजार में ऐसा क्या है जो भारतीय एक्सचेंजों में नहीं है। इस पर घोष का कहना है कि इसके पांच प्रमुख कारण हैं। पहला, भारतीय एक्सचेंजों में जिंस उत्पाद सीमित हैं। वायदा अनुबंध नियमन अधिनियम, 1952 के अंतर्गत केवल थोड़े ही जिंसों में वायदा सौदों की अनुमति दी गई है, जबकि अमेरिका एवं ब्रिटेन में आप्शंस, इंडाइसेस, स्वैप, स्वैपशंस और दूसरे अहम उत्पादों में एक्सचेंज पर सौदा करने की छूट है। एक्सचेंजों पर आप्शंस एवं इंडासेस के उत्पादों के होने से हेजिंग और मजबूत एवं लाभकारी होती है। दूसरा कारण अनुबंधों के डिनोमिनेशंस को लेकर है। भारतीय एक्सचेंजों में अनुबंध रुपये में होते हैं, जबकि अमेरिकी एवं यूरोपीय एक्सचेंजों में वैश्विक मुद्रा जैसे डॉलर व यूरो में अनुबंध होते हैं। इससे वैश्विक कारोबारियों की भागीदारी बढ़ती है। विदेशी संस्थानों को नजरअंदाज करना तीसरा कारक है। भारत के एक्सचेंजों में विदेशी संस्थान तो दूर घरेलू बैंकों और म्युचुअल फंडों को भी जिंसों के सौदे करने की अनुमति नहीं है। अंतरराष्ट्रीय एक्सचेंजों में ऐसी कोई पाबंदी नहीं है। भारतीय एक्सचेंजों में 14 घंटे कारोबार होता है, जबकि अमेरिका और यूरोपीय देशों में 22 घंटे से ज्यादा कारोबार होता है। यह चौथी वजह है, जिसके चलते अंतरराष्ट्रीय एक्सचेंजों में दर्ज भाव को संदर्भ के लिए लिया जाता है और वे कीमत निर्धारक बन जाते हैं। पांचवा सबसे अहम कारण यह है कि एक्सचेजों के बीच क्रास-माॢजनिंग करना यानी एक एक्सचेंज से दूसरे एक्सचेंज में ट्रेडिंग करना। अमेरिका और यूरोप में क्रास-माॢजनिंग मान्य है जो भारतीय एक्सचेंजों में मान्य नहीं है। गौरतलब है कि विदेशी संस्थानों के पास निवेश के पैसे भरपूर होते हैं और वे डेरिवेटिव्स बाजारों में लंबे समय तक तरलता का निर्माण कर सकते हैं। नतीजतन लंबे समय तक हेजिंग की जा सकती है और ऊंची तरलता के कारण अल्पकालिक लागत भी कम हो जाती है। भारत के कॉरपोरेट हेजरों की हमेशा शिकायत रहती है कि जिंस बाजारों में लंबी अवधि के सौदों का अभाव रहता है जिससे उनकी हेजिंग पर असर पड़ता है। अंतरराष्ट्रीय एक्सचेंजों में संस्थागत निवेशकों की भागीदारी पारदर्शक व वृहद होती है, जिससे भाव खोजने की प्रक्रिया में मदद मिलती है। साफ है देश के जिंस एक्सचेंज इन्हीं कारणों से वैश्विक स्तर पर कीमत निर्धारक बनने में विफल रहते हैं। (BS Hindi)

कोई टिप्पणी नहीं: